छाँव भी लगती नहीं अब छाँव [कविता] - लाला जगदलपुरी

हट गये पगडंडियों से पाँव / लो, सड़क पर आ गया हर गाँव। / चेतना को गति मिली स्वच्छन्द, / हादसे, देने लगे आनंद / खिल रहे सौन्दर्य बोधी फूल / किंतु वे ढोते नहीं मकरंद। / एकजुटता के प्रदर्शन में / प्रतिष्ठित हर ओर शकुनी-दाँव। / हट गये पगडंडियों से पाँव / लो, सड़क पर आ गया हर गाँव। / आधुनिकता के भुजंग तमाम / बमीठों में कर रहे आराम / शोहदों से लग रहे व्यवहार / रुष्ट प्रकृति दे रही अंजाम। / दुखद कुछ ऐसा रहा बदलाव / छाँव भी लगती नहीं अब छाँव। आगे पढ़ें... →

कवि डा. शिवमंगलसिंह ‘सुमन’ जी के सान्निध्य में - डा॰ महेन्द्रभटनागर

ग्वालियर-उज्जैन-इंदौर नगरों में या इनके आसपास के स्थानों (देवास, धार, महू, मंदसौर) में वर्षों निवास किया; एतदर्थ ‘सुमन’ जी से निकटता बनी रही। ख़ूब मिलना-जुलना होता था; घरेलू परिवेश में अधिक। जा़हिर है, परस्पर पत्राचार की ज़रूरत नहीं पड़ी। पत्राचार हुआ; लेकिन कम। ‘सुमन’ जी के बड़े भाई श्री हरदत्त सिंह (ग्वालियर) और मेरे पिता जी मित्र थे। हरदत्त सिंह जी बड़े आदमी थे; हमारे घर शायद ही कभी आये हों। पर, मेरे पिता जी उनसे मिलने प्रायः जाते थे। वहाँ ‘सुमन’ जी पढ़ते-लिखते पिता जी को अक़्सर मिल जाया करते थे। ‘सुमन’ जी बड़े आदर-भाव से पिता जी के चरण-स्पर्श करते थे। लेकिन, ‘सुमन’ जी में सामन्ती विचार-धारा कभी नहीं रही। आगे पढ़ें... →

भारतीय और पाश्चात्य संस्कृति [आलेख] - डॉ. काजल बाजपेयी

संस्कृति किसी समाज में गहराई तक व्याप्त गुणों के समग्र रूप का नाम है जो उस समाज के सोचने, विचारने, कार्य करने, खाने-पीने, बोलने, नृत्य, गायन, साहित्य, कला, वास्तु आदि में परिलक्षित होती है। संस्कृति का वर्तमान रूप किसी समाज के दीर्घ काल तक अपनायी गयी पद्धतियों का परिणाम होता है। मनुष्य स्वभावतः प्रगतिशील प्राणी है। यह बुद्धि के प्रयोग से अपने चारों ओर की प्राकृतिक परिस्थिति को निरन्तर सुधारता और उन्नत करता रहता है। सभ्यता से मनुष्य के भौतिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है जबकि संस्कृति से मानसिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है। मैं बचपन से दो प्रकार की संस्कृतियों के बारे में सुनती आ रही हूँ। भारतीय संस्कृति और पाश्चात्य संस्कृति या अंग्रेजी संस्कृति।  आगे पढ़ें... →

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