छाँव भी लगती नहीं अब छाँव [कविता] - लाला जगदलपुरी

हट गये पगडंडियों से पाँव / लो, सड़क पर आ गया हर गाँव। / चेतना को गति मिली स्वच्छन्द, / हादसे, देने लगे आनंद / खिल रहे सौन्दर्य बोधी फूल / किंतु वे ढोते नहीं मकरंद। / एकजुटता के प्रदर्शन में / प्रतिष्ठित हर ओर शकुनी-दाँव। / हट गये पगडंडियों से पाँव / लो, सड़क पर आ गया हर गाँव। / आधुनिकता के भुजंग तमाम / बमीठों में कर रहे आराम / शोहदों से लग रहे व्यवहार / रुष्ट प्रकृति दे रही अंजाम। / दुखद कुछ ऐसा रहा बदलाव / छाँव भी लगती नहीं अब छाँव। आगे पढ़ें... →

कवि डा. शिवमंगलसिंह ‘सुमन’ जी के सान्निध्य में - डा॰ महेन्द्रभटनागर

ग्वालियर-उज्जैन-इंदौर नगरों में या इनके आसपास के स्थानों (देवास, धार, महू, मंदसौर) में वर्षों निवास किया; एतदर्थ ‘सुमन’ जी से निकटता बनी रही। ख़ूब मिलना-जुलना होता था; घरेलू परिवेश में अधिक। जा़हिर है, परस्पर पत्राचार की ज़रूरत नहीं पड़ी। पत्राचार हुआ; लेकिन कम। ‘सुमन’ जी के बड़े भाई श्री हरदत्त सिंह (ग्वालियर) और मेरे पिता जी मित्र थे। हरदत्त सिंह जी बड़े आदमी थे; हमारे घर शायद ही कभी आये हों। पर, मेरे पिता जी उनसे मिलने प्रायः जाते थे। वहाँ ‘सुमन’ जी पढ़ते-लिखते पिता जी को अक़्सर मिल जाया करते थे। ‘सुमन’ जी बड़े आदर-भाव से पिता जी के चरण-स्पर्श करते थे। लेकिन, ‘सुमन’ जी में सामन्ती विचार-धारा कभी नहीं रही। आगे पढ़ें... →

भारतीय और पाश्चात्य संस्कृति [आलेख] - डॉ. काजल बाजपेयी

संस्कृति किसी समाज में गहराई तक व्याप्त गुणों के समग्र रूप का नाम है जो उस समाज के सोचने, विचारने, कार्य करने, खाने-पीने, बोलने, नृत्य, गायन, साहित्य, कला, वास्तु आदि में परिलक्षित होती है। संस्कृति का वर्तमान रूप किसी समाज के दीर्घ काल तक अपनायी गयी पद्धतियों का परिणाम होता है। मनुष्य स्वभावतः प्रगतिशील प्राणी है। यह बुद्धि के प्रयोग से अपने चारों ओर की प्राकृतिक परिस्थिति को निरन्तर सुधारता और उन्नत करता रहता है। सभ्यता से मनुष्य के भौतिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है जबकि संस्कृति से मानसिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है। मैं बचपन से दो प्रकार की संस्कृतियों के बारे में सुनती आ रही हूँ। भारतीय संस्कृति और पाश्चात्य संस्कृति या अंग्रेजी संस्कृति।  आगे पढ़ें... →

ईटों का जंगल - तेजेन्द्र शर्मा

पत्र मेरे सामने रखा था। रामप्रकाश एंड कंपनी का नाम उस पर सुनहरे अक्षरों से छपा था। उस कागज़ क़े पुतले ने मेरे सारे सपनों को धाराशायी कर दिया था। मेरा चहकना अचानक उडन-छू हो गया था। मेरी पत्नी तो जैसे बेहाश होने को थी। कभी उसने भी रामप्रकाश एंड कंपनी के सुनहरे अक्षरों जैसे सुनहरे सपने देखे थे। बंबई जैसे महानगर में सपने ही तो मनुष्य को जीवित रखते हैं। धारावी, माहीम, कुर्ला और सारे उपनगरों की झोंपडपट्टियों में जी रहे लोग किसी सपने के सहारे ही तो अपना जीवन बिता रहे हैं। इसी शहर में रामप्रकाश ने हमें भी एक सपना दिखा दिया था।

सपने तो मैं दिल्ली में भी बहुत देखता था। वहां अपना घर है। घर! हां, सचमुच का घर! बंबई के कबूतरखानों से कहीं भिन्न आँगन, सहन, बाग, सात कमरे, दो गुसलखाने, नौकरों के कमरे और हमारी प्यारी कुतिया लिजा का कमरा। इतना सब होते हुए भी मुझे बंबई आने की क्या आवश्यकता थी? पिताजी का अच्छा-खासा व्यवसाय है। और मैं उनका इकलौता पुत्र! मेरे साथी भी तो मुझसे इर्ष्या करते थे। लाला धर्मराज का इकलौता वारिस - उनकी तीन मिलों का भावी मालिक! सब कुछ ठीक ही तो चल रहा था। फिर एकाएक क्या हो गया? क्यों मैं बगावत पर उतारू हो गया? कैसे इस मायानगरी में चला आया मैं? उस पत्र को देखकर मैं उछल उठा था। एअरलाइन ने मुझे नौकरी दे दी थी-फ्लाइट परसन की।

पत्र तो यह भी आया था, नीले कागज पर सुनहरे अक्षर लिये, किंतु काले रंग के टाइप किये शब्दों ने नीले और सुनहरे रंग को जहरीला-सा बना दिया था। रोहिणी सुबक रही थी। मैं कभी उसे ढाढस बंधाता और कभी स्वयं को संयत करने की कोशिश करता। एक ठंडा काला सन्नाटा घर में छा गया था।

प्यार! हां, यही तो किया मैंने। मैं रोहिणी को प्यार करने लगा तो ऐसा क्या गुनाह हो गया था ? पिताजी तो गरीब घर से ही बहू लाना चाहते थे। उन्हें तो दहेज से कोई लगाव नहीं था, किंतु जात-बिरादरी के मामले में कट्टरपन उनमें जैसे कूट-कूटकर भरा था! लव-मैंरिज के नाम से ही उन्हें चिढ थी। बडों का अस्तित्व उन्हें हिलता दीखने लगता था। नाराज तो रोहिणी के परिवार वाले भी हुए थे। हम दोनों अकेले पड ग़ये थे।

अकेले! अकेले तो हम आज भी हैं। मेरे पिता कोई फिल्मी पिता नहीं, जो कुछ दिनों बाद हमें अपने सीने से लगा लेते। उनके उसूल तो संम्भवतः भगवान भी न बदल पायें। हां, ससुरालवालों ने अवश्य हमारे प्यार को समझने की कोशिश की। कुछ समय बाद उन्होंने हमें माफ भी कर दिया। इस सुरसा नगरी में हम दोनों तीन होने की प्रतीक्षा में हैं, तीन महीने में रोहिणी माँ बनने वाली है। मेरी माँ तो पिताजी के हुक्म के बिना साँस भी नहीं ले सकती। रोहिणी की माँ अब हमसे नाराज तो नहीं हैं, पर इतनी प्रसन्न भी नहीं हैं कि प्रसव करवाने के लिए हमारी सहायता करने बंबई आ जायें। ऊपर से यह पत्र! अब तो हमें काणे साहब भी टका-सा जवाब दे चुके हैं। इस फ्लैट को भी दो महीने में खाली करना है। जीवन एक बडा-सा प्रश्नचिन्ह बन गया है।

प्रश्न! जब हम दोनों बंबई पहुंचे तो भी यही प्रश्न हमारे सामने मुँह बायें खडा था कि कहाँ रहें। करोडपति बाप का इकलौता बेटा! पहली बार अकेला अपने पैरों पर खडा होने की कोशिश कर रहा था। पहले दिन जिस होटल में भी रहने के बारे में सोचा, वही अपनी जेब से ऊँचा दिखायी दिया। जैसे-तैसे करके, कांदिवली में एक होटल पचास रूपये रोज पर तय हुआ।

सारा शहर ऊँची-ऊँची इमारतों से घिरा पडा है - ईटों का जंगल। उन माचिसनुमा बिल्डिगों में मैं भी अपने लिए एक घोंसला तलाश रहा था। रोज दफ्तर के बाद दलालों के आगे घिघियाता सा पहुँच जाता। सबके सब साले मक्कार थे। पंद्रह-बीस हाजर की डिपाजिट और छः से आठ सौ रूपये किराया - इससे नीचे तो कोई बात ही नहीं करता। और यह हाल था उपनगर का। शहर में तो कोई किराये पर फ्लैट देने की बात ही नहीं करता।

बात जयकर ने की थी - ग्रांट रोड और कोलीवाडा की बात की थी। कोलीवाडा के नाम से एक सरकारी कॉलोनी का जिक्र भी आया। मन में एक नयी आशा जाग उठी। बहुत सुंदर-सा नाम बताया था उसने - एंटॉपहिल! सुनकर लगा, जैसे मालाबार हिल या पाली हिल के समान कोई सुंदर सी जगह होगी। पहली बार जब वहाँ गया तो सच्चाई की कडवाहट ने थू-थू करवा दी। बांदरा हाइवे पार करते ही एक सडांध दिमाग में घुसने लगी। और फिर आया धारावी-गंदगी की पराकाष्ठा! शाम का समय था। कोलीवाडा की वेश्याएं अपना बाजार सजाये सडक़ों पर घूम रही थीं। मन में एक अजीब-सी धारणा घर करती जा रही थी। आखिर एंटॉपहिल आ ही पहुंचा। सेक्टरों में बंटी हुई सरकारी कॉलोनी। चारों ओर से झोंपडियों से घिरी. एक ओर से चैंबूर के कारखाने से आती धुएं की लकीरें तथा रसायनों की गंध, तो दूसरी ओर जरायम पेशा लोगों का डर।

हाँ, वहां कच्ची शराब बनाने वालों की झोंपडियाँ भी थीं। वहां भी फ्लैट मिलना क्या आसान था? हर दूसरे घर में दलाल! फ्लैट की शर्तें सुनकर बहुत घबराहट होती। ग्यारह महीने का किराया इकट्ठा लेने का रिवाज है वहाँ। दो या तीन महीने का किराया दलाली के रूप में भी देना पडता है। हमारा दलाल छोटेलाल भी तो कम घाघ नहीं था। बात करते हुए खीसें बहुत निपोरता था। बहुत चक्कर लगवाये उसने भी।

चक्कर लगाने के सिवा मैं कर भी क्या सकता था! फिर जैसे भगवान ने हमारी सुन ली। छोटेलाल ने हमें चौथी मंजिल पर एक कबूतरखाना दिलवा ही तो दिया।

''हें-हें-हें देखो सेठ, चौथी माला का अपना फायदा है। एक तो चोरी-चकारी का डर नहीं, पानी की टंकी भी ठीक ऊपर है, और फिर मेहमान भी कम आयेंगे। कौन चढेग़ा चार-चार माला!''

हमें तो रोज चढनी थीं वे चार मंजिलें, किंतु फिर भी छोटेलाल हमारे लिए जैसे भगवान का अवतार था। उसने हमें कांदिवली के बदबूदार कमरे से उठाकर चौथी मंजिल की फर्राटेदार हवा में ला बिठाया था। जीवन कुछ चलने लगा था। रोहिणी को अब मेरे पीछे अकेले रहने में उतनी परेशानी नहीं होती थी। मेरी नौकरी भी तो अजीब-सी है। सारा समय घर में ही बीतता है या फिर भारत से बाहर ही रहना होता है। कई बार तो मेरा टूर दस-बारह दिन का भी हो जाता है, परंतु रोहिणी के चेहरे पर पीड़ा की एक लकीर-सी खिंच जाती। अकेलेपन से कहीं अधिक उसका एहसास हमें झकझोर देता था। कोई भी रिश्ता ऐसा नहीं था, जिसका वास्ता देकर किसी को हम अपने यहाँ बुला लेते।

बुलाने की आवश्यकता ही नहीं पडी। वह बिना बुलाये ही आ धमके। सारी कॉलानी में शोर मचा हुआ था -'चैकिंग हो रही है। चैकिंग!' यह क्या होती है? और तभी छोटेलाल भी हांफता हुआ आ ही पहुंचा, ''नरेंद्रजी, जल्दी कीजिए, फ्लैट को ताला लगाकर कहीं निकल चलिए। आज चैकिंग हो रही है। किसी ने कंप्लेंट कर दी है कि अलॉटी लोगों ने फ्लैट किराये पर चढा रखे हैं। जल्दी करो साहिब, रात को वापस आ जाइएगा.'' हडबडाहट में फ्लैट को ताला लगाया और किंग सर्कल स्टेशन की ओर चल दिये। समझ में नही आ रहा था कि जायें तो जायें कहाँ? रोहिणी भी बदहवास-सी हो रही थी। शाम तक निरूद्देश्य वीटी से गेटवे तक घूमते रहे। सब कुछ बहुत बेमानी-सा लग रहा था। रात ढलने पर वापस पहुंचे। शोर शांत हो चुका था। न तो मुझे ही भूख थी और नही रोहिणी खाना बनाने की स्थिति में थी। दोनों यों ही पडे रहे।

पडे रहने से तो कोई काम बनता नहीं। फिर से एक बार फ्लैट की तलाश शुरू कर दी। वैसे भी ग्यारह महीने पूरे होने को थे। हमारे दलाल की खीसें फिर से निपुरने वाली थीं। अब दोबारा इस चैकिंग का सामना करने की हिम्मत नहीं थी हम दोनों में। एक गुजराती महिला को हम पर दया आ गयी। उसने अपना अंधेरीवाला फ्लैट हमें किराये पर देना स्वीकार कर लिया। उसने कहा ''हफ्ते-पंद्रह दिन में किसी भी दिन आ जाओ।'' उसे डिपॉजिट भी कोई चाह न थी ।

किंतु छोटेलाल को तो अपनी दलाली की चाह थी, ''अरे नरेंद्रजी, दस महीने तो हो चुके। आप अगले ग्यारह महीने का किराया भी दे ही डालिए। और आपके लिए एक स्पेशल छूट, अब की बार आपसे दो महीने की दलाली नहीं लूंगा, सिर्फ एक महीने से काम चल जायेगा।''

गुजराती महिला के आश्वासन ने मुझमें बहुत आत्मविश्वास जगा दिया था। मैं बोल ही तो पडा, ''दलाली किस बात की छोटेलाल! दलाली तो एक ही बार ही दी जाती है, जो हम दे चुके हैं। अब कोई दलाली वलाली नहीं देंगे हम।''

छोटेलाल कुछ गडबडा-सा गया। यह भाषा और धमकी दोनों ही उसके लिए अप्रत्याशित थीं, किंतु उसने हार मानना कहाँ सीखा था, ''यह तो और भी बढिया हुआ। अब नया ग्राहक तो दो-तीन महीने की दलाली देगा ही। चाबी लेने परसों हाजिर हो जाऊंगा।''

सामान ट्रक में लदवा रहा था। दिमाग उत्तेजना से भरा था। मन-ही-मन छोटेलाल को लाखों गालियाँ दे चुका था और उस गुजराती महिला को दुआएं।

अंधेरी पहुंचकर जीवन का सबसे काला अंधेरा देखा था मैंने। सामान ट्रक में लदा पडा था। मैं और रोहिणी उस गुजराती महिला के पास चाबी लेने पहुंचे तो उसने फ्लैट देने से साफ इन्कार कर दिया। उसे कोई बीस हजार डिपाजिट देने वाला मिल गया था। दिमाग ने काम करना बंद कर दिया था। मन हुआ कि इस महिला का खून कर दूं। हमें सडक़ पर ला खडा किया था उसने। आसमान में बादल गरज रहे थे। बंबई की बरसात का कोई भरोसा है? उसी समय ट्रक छोटेलाल के घर की ओर मुडवा दिया।

छोटेलाल ने अभी गिलास में रम डाली ही थी। मुझे देखकर भी अनदेखा कर दिया उसने।

''छोटेलालजी, बहुत मुसीबत में फँस गया हूं। आप ही मेरी सहायता कर सकते हैं।''

''अरे नरेंद्रजी, मुझ गिरे हुए इन्सान के मुँह लगने आप कहाँ आ गये! आप तो अंधेरी में रहनेवाले थे! एंटॉपहिल तो गुडों का इलाका है !''

''छोटेलालजी, मेरी बदतमीजी, मेरी गुस्ताख़ी को माफ कर दीजिए। हमें हमारा फ्लैट वापस कर दीजिए। आप जितनी दलाली चाहें, ले लें। इस समय तो हम सडक़ पर खडे हैं। थोडा उपकार कर दीजिए।''

संभवतः मेरी आंखों में घुटे हुए आँसुओं ने छोटेलाल पर थोडा असर किया था। वह तीन महीने की दलाली लेकर हमें फ्लैट वापिस देने को तैयार हो गया। जैसे सामान उतारा था, वैसे ही चढाने लगे।

इस हादसे के बाद हम काफी हिल-से गये। एक दिन रात को सोते समय रोहिणी बहुत प्यार से बोली, ''सुनिए, जो थोडा-बहुत गहना हमारे पास है, उसे बेच देते हैं। एक छोटा-सा घर खरीद लेते हैं। जब हाथ खुला होगा तो गहने फिर से बनवा लेंगे।'' मुझे एक झटका-सा लगा। मेरी पत्नी इतनी दूर की सोच रही है और मैं अभी कौडियाँ मिलाने के चक्कर में हूं। यह सुनकर स्वयं को कुछ हीन-सा अनुभव करने लगा।

एक दिन ऑफिस के नोटिस-बोर्ड पर एक सूचना टंगी देखी। यूं लगा, जैसे में इसी सूचना की प्रतीक्षा में था। जुहू में इतने सस्ते दामों में फ्लैट! वह भी समुद्र-तट को छूता हुआ! पत्नी को भी विचार पसंद आया। गहने लेकर उसी सुनार के पास पहुँचा, जहाँ से बनवाये थे। गहने खरीदते समय तो बनवाई भी ली थी उसने। अब बोला, "सेठ, बीस परसैंट तो टांके में जायेगा।" मरता क्या न करता! वही ले लिया।

और भी जहाँ-जहाँ से पैसा इकट्ठा कर सकता था, किया। पैसा लेकर चीफ प्रोमोटर काणे साहब के पास एकाउंट्स डिपार्टमेंट की ओर चला जा रहा था - मन में एयरलाइन की सोसाइटी का सपना लिये। एकदम से चालीस हज़ार रूपया कैश किसी अंजान व्यक्ति को देते डर-सा लग रहा था। जी कडा करके काणे साहब को पैसा दे ही दिया, साथ में बीस हज़ार रूपये का चैक। बाकी तो एयरलाइन से लोन लेना था। ब्लैक और व्हाइट का सिलसिला अब मुझे भी समझ आने लगा था। क्या विडंबना है - सचमुच के नोट तो ब्लैक हैं और पेन की काली स्याही से लिखा चैक व्हाइट है। काणे साहब कहे जा रहे थे, ''ऐसा मौका फिर नहीं मिलेगा। अगली दीवाली आप अपने घर में ही मनायेंगे!''

अब मैं जब भी फ्लाइट पर विदेश जाता तो पैसे को दांतो तले दबाकर खर्च करता। रहता तो फाइव-स्टार होटलों में (एअरलाइन के खर्चे पर) परंतु खाना वहां के ढाबों में ही खाता। हैंबर्गर, हॉट डॉग, फ्रैंक-फ़र्टर या पिज़ा खाकर पेट भर लेता। रात को देर से, एक या दो बजे सोता ताकि सुबह देर से ही उठूं और नाश्ते का समय निकल जाये। दोपहर और रात के खाने पर गुजारा करता। कभी-कभी तो उसमें भी कोताही कर जाता। पैसे कुछ बचने लगे थे।

हमारी बिल्डिंग की चिनाई पूरी हुई ओर पहला स्लैब पड गया। मन अपने स्वर्णिम भविष्य की पहली झलक देखकर झूम उठा। अब मैंने अपने ससुरालवालों पर भी रौब गाँठना शुरू कर दिया, 'बंबई में जुहू पर फ्लैट ले रहा हूँ! वे भी अपनी बेटी के भाग्य को सराह रहे थे।

छः महीनों में चार स्लैब पड ग़ये। जब तब एंटॉपहिल से निकलता, कोलीवाडा और धारावी की गंदगी में से गुज़रता, जुहू जा पहुंचता। बिल्डिंग की बढती हुई ऊंचाई जैसे मेरा जीवन ही बन गयी थी।

फिर सीमेंट का अकाल पड ग़या । डोनेशनों के चक्कर शुरू हो गये। हमारी बिल्डिंग की ऊँचाई बढनी बंद हो गयी। काम रूक गया। हमारी बिल्डिंग का भविष्य, हम चालीस कर्मचारियों का भविष्य अधर में लटक गया। हम भागे-भागे काणे साहब के पास पहुंचे, "काणे साहब, आप हमारे चीप प्रोमोटर हैं, कुछ करिए, चार महीनों से काम बंद है!"

"तुम घबराओं नहीं। बिल्डिंग तो उसका बाप भी पूरी करेगा। उसकी चाबी मेरे हाथ में है।" काणे साहब अपनी मेज पर कपडा फेरते हुए बोले। उनकी मेज के कांच के नीचे दबे साई बाबा संभवतः हमारी मुश्किल समझ रहे थे।

"ग्यारह महीने और बीत गये। छोटेलाल की खीसें फिर एक बार निपुर आयीं। बुझे मन से ग्यारह महीने का किराया एवं उसकी दलाली एक बार फिर उसके हवाले कर दी। रोहिणी का माथा थोडा ठनका, "सुनिए जी, यह बिल्डर मकान बनायेगा भी क्या?"

"घबराओ नहीं, सब ठीक हो जायेगा।" मैं रोहिणी से अधिक स्वयं अपने-आपको आश्वस्त करते हुए बोला।

और फिर आया रामप्रकाश एंड कंपनी का यह पत्र। हमारी आशाओं की बिल्डिंग इस पत्र का एक झटका भी नहीं सह पायी। हमारे बिल्डर ने लिखा था कि 'गृह-निर्माण की वस्तुओं के मूल्यों में वृध्दि हो गयी है। प्रार्थना है कि सौ रूपया प्रति फुट के हिसाब से और जमा करवाएं, अन्यथा वह बिल्डिंग पूरी नहीं कर पायेगा।"

काणे साहब के घर पहुंचे तो वह साई बाबा के कीर्तन में जाने की तैयारी कर रहे थे। आँखो में ही उन्होंने हमारे आने का सबब जान लिया था।

"काणे साहब, हमारा पैसा इतने वर्ष रखकर, बिल्डर ने यह क्या पत्र भेजा है?"

"देखो भाई लोग, हम कर क्या सकते हैं?"

"उसे कोर्ट मे घसीट सकते हैं। उसके विरूद्ध समाचार-पत्रों में प्रचार कर सकते हैं । आप तो ऐसे बात कर रहे हैं, जैसे आपका पैसा तो वहाँ लगा ही नहीं है हम उसे इतनी आसानी से नहीं छोडेंग़े।"

"कैसी बच्चों जैसी बातें करते हैं आप लोग! कोर्ट में जाने का मतलब है सालों तक मामला लटका रहेगा, फिर कोर्ट के जरिये तो आपको केवल व्हाइट पैसा ही मिलेगा। बाकी चालीस हजार कैश का क्या होगा?"

"तो हम क्या करें ?"

"मेरी बात मानिए, झगडे से कुछ नहीं बनेगा । बिल्डर के साथ लडाई लड़ना असान नहीं है । आप अपने पैसे वापस ले लीजिए। कहीं वो भी किसी लफडे में न फँस जाये।"

और मैं यह पैसा लेकर बैठा हूँ छोटेलाल की प्रतीक्षा में। तीन वर्षों में यह पैसा कैसे-कैसे सपने दिखाता रहा। फ्लैटों के रेट इस बीच आसमान को छूने लगे हैं। रामप्रकाश एंड कंपनी ने हमारी बिल्डिंग तिगुने दामों पर बेच दी है।

काणे साहब के घर एक नयी मोटरसाइकिल, फ्रिज, रंगीन टेलीविजन, म्यूजिक सिस्टम दिखायी देने लगे हैं और उनके पासपोर्ट पर अंकित है कि वह पिछले तीन सालों में दो बार न्यूयॉर्क का चक्कर लगा आये हैं।

2 टिप्पणियाँ:

  1. vijay kumar sappatti says

    aapki is katha ne aaj ke haalat ka sundar prstuthikaran hai .. ghar kise nahi chahiye , aur is ghar ki chahat hi insaan ko kin kin pareshaniyon se gujarwati hai ..

    bahut badhai .

    vijay

    http://poemsofvijay.blogspot.com/


    पद्मा मिश्रा जमशेदपुर झारखंड says

    ओह, जीवन की आपाधापी ने जाने कितने रंग दिखाती है, अपने घर"का सपना हर आंखों में पलता है,पर उन सपनों को बेंच कर स्वार्थ की दलाली खाने वालों की कमी नहीं, बेहद संवेदनशील, मार्मिक व्यथा कथा,, बहुत अच्छी कहानी


जीवन परिचय...पुस्तकालय...
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